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प्र वो॒ वाजा॑ अ॒भिद्य॑वो ह॒विष्म॑न्तो घृ॒ताच्या॑। दे॒वाञ्जि॑गाति सुम्न॒युः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo vājā abhidyavo haviṣmanto ghṛtācyā | devāñ jigāti sumnayuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। वाजाः॑। अ॒भिऽद्य॑वः। ह॒विष्म॑न्तः। घृ॒ताच्या॑। दे॒वान्। जि॒गा॒ति॒। सु॒म्न॒युः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:27» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:28» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पन्द्रह ऋचावाले सत्ताईसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (वः) आप लोगों के (अभिद्यवः) चारों ओर से प्रकाशमान (हविष्मन्तः) बहुत सी देने योग्य वस्तुओं से युक्त (वाजाः) विज्ञान आदि पदार्थ (घृताच्या) जल को प्राप्त होनेवाली रात्रि के सहित वर्त्तमान हैं उनसे युक्त जो (सुम्नयुः) अपने सुख का अभिलाषी (देवान्) विद्वानों की (प्र, जिगाति) उत्तम प्रकार स्तुति करता है, उन विद्वानों और स्तुतिकारक उस पुरुष को आप लोग प्राप्त होओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - जैसे दिन में पदार्थ सूखते और रात्रि में गीले होते हैं, उसी प्रकार जो अपने पदार्थ हैं, वे औरों के और जो औरों के हैं, वे अपने हैं, इस प्रकार सुख की इच्छा से विद्वानों का सङ्ग करना चाहिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्भिः किं कार्यमित्याह।

अन्वय:

हे मनुष्यो ये वोऽभिद्यवो हविष्मन्तो वाजा घृताच्या सह वर्त्तन्ते तैर्युक्तो यः सुम्नयुर्देवान् प्रजिगाति तांस्तं च यूयं प्राप्नुत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्माकम् (वाजाः) विज्ञानाद्यः पदार्थाः (अभिद्यवः) अभितः प्रकाशमानाः (हविष्मन्तः) बहूनि हवींषि देयानि वस्तूनि विद्यन्ते येषु ते (घृताच्या) या घृतमुदकमञ्चति प्राप्नोति तथा रात्र्या (देवान्) (जिगाति) स्तौति (सुम्नयुः) य आत्मनः सुम्नं सुखमिच्छुः ॥१॥
भावार्थभाषाः - यथा दिवसे पदार्थाः शुष्का भवन्ति तथैव रात्रावार्द्रा जायन्ते तथैव ये स्वकीयाः पदार्थास्तेऽन्येषां येऽन्येषां ते स्वकीयाः सन्तीति सुखेच्छया विद्वत्सङ्गः कर्त्तव्यः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जसे पदार्थ दिवसा सुकतात व रात्री ओलसर होतात त्याच प्रकारे जे पदार्थ आपले आहेत ते इतरांचे व जे इतरांचे ते आपले आहेत या प्रकारे सुखाच्या इच्छेने विद्वानांचा संग केला पाहिजे. ॥ १ ॥